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Full Mahabharat Katha in Hindi

Mahabharat Katha Part 2 – महाभारत कथा भाग २

Mahabharat Katha : महाभारत कथा का यह दूसरा भाग है| अगर आपने पहला भाग नही पड़ा है तो सबसे पहले आप महाभारत की कहानी का भाग 1 पढ़े उसके बाद इस भाग को पढ़े तभी आपको सम्पूर्ण महाभारत की कथा समझ आएगी.

महाभारत कथा के भाग 1 में हमने कुछ विषय पर चर्चा की थी जो इस प्रकार है:-

  1. कुरु वंश की उत्पत्ति
  2. कृपाचार्य और द्रोणाचार्य
  3. धृतराष्ट्र पाण्डु और विदुर का जन्म और उनके विवाह
  4. पाण्डु का राज्याभिषेक
  5. कर्ण का जन्म कैसे हुआ
  6. एकलव्य की भक्ति
  7. लाक्षागृह षड्यंत्र महाभारत
  8. द्रौपदी का स्वयंवर

इस भाग में हम इन्द्रप्रस्थ की स्थापना, पांडवों की विश्वविजय, दिव्यास्त्रों की प्राप्ति, जयद्रथ की दुर्गति और कीचक वध के विषय में चर्चा करेंगे| तो आईये महाभारत कथा के इस लेख को पढ़ना शुरू करते है.

महाभारत इंद्रप्रस्थ का निर्माण – Mahabharat Katha

अब तक सभी को लगता था की पांडव मर गये है लेकिन स्वयम्वर के बाद सबको शक हो गया था की पांडव जीवित है| पांडव को मृत समझने के कारण ही शकुनी के कहने पर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया था.

द्रौपदी स्वयंवर के बाद सबको पता चला की पांडव जीवित है फिर पांडवों ने कौरवों से अपना राज्य माँगा| युधिष्ठिर ग्रह युद्ध नहीं चाहते थे इसीलिए उन्होंने कौरवों के द्वारा दिए हुए सुझाव को ही स्वीकार कर लिया.

पांडवों का विवाह पांचाली यानि की द्रुपद की पुत्री से होने की वजह से पांडव काफी शक्तिशाली हो गये इसके बाद धृतराष्ट्र ने पांडवों को अपने राज्य बुलवाया|

धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से कहा की कुंती पुत्र आप सभी खाण्डवप्रस्थ के वन को हटाकर वहा एक सुंदर शहर का निर्माण करो जिससे की मेरे पुत्रो और तुम सभी में कोई भी फर्क ना हो|

धृतराष्ट्र की यह बात सुनकर पाण्डु पुत्रों ने हस्तिनापुर से प्रस्थान कर दिया| पांडवों ने खाण्डवप्रस्थ के वनों  को हटाकर वहा निर्माण कार्य शुरू कर दिया इसके बाद पांडवों ने श्री कृष्ण के साथ मिलकर तथा मय दानव के साथ पुरे शहर का सौंदर्यीकरण किया|

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वह शहर इतना भव्य और सुंदर बना की वह दिखने में द्रितीय स्वर्ग के समान लगने लगा इसके बाद उस राज्य में एक यज्ञ और ग्रह प्रवेश अनुष्ठान हुआ|

इस राज्य में असंख्य द्वार थे जो की गरुड़ के विशाल फ़ले पंखो की तरह खुले थे| इस शहर की रक्षा दिवार में मद्रांचल पर्वत जैसे विशाल द्वार थे| इस शस्त्रों से सुसज्जित नगरी को किसी भी दुश्मन का बाण खरोंच भी नही दे सकता था यहा तोपे बड़ी और शतघ्नी थी जैसे की दुमही सांप होते है|

इस नगर की बुर्जियो पर सशस्त्र सेना के सेनिक लगे थे| उनकी दीवारों पर वृहद लौह चक्र भी लगे थे इस राज्य की सड़के बहुत चोडी और बड़ी थी और साफ़ सुथरी थी|

इन सडको पर कोई दुर्घटना का डर भी नही था यह नगरी इंद्र की अमरावती नगरी के समान दिखने लगी थी| इसी वजह से इस नगर का नाम इन्द्रप्रस्थ रखा गया.

इस नगर के सबसे श्रेठ भाग में पांडवों का महल था जिसमे कुबेर के समान खजाना और भण्डार थे| इतना वैभव को देखकर आखे चोंधिया जाती थी|

जब यह शहर बसा तो वहा बड़ी संख्या में ब्राह्मण आये और उनके पास वेद शास्त्र भी थे यहा अलग अलग दिशाओ से व्यापारी गण आये हुए थे क्यूंकि उन्हें यहा नया व्यापार करने और धन कमाने की आशा थी.

बहुत सारे कारीगर वर्ग के लोग भी यहा आये| इस शहर के भारी हिस्से में कई उद्यान थे जहा अलग अलग प्रकार के बहुत सारे फल फुल लगे हुए थे.

पांडवों की विश्वविजय – Mahabharat Katha in Hindi

धृतराष्ट्र ने विदुर को इन्द्रप्रस्थ जाकर युधिष्ठिर को आमंत्रित करने को कहा लेकिन विदुर जाने का विरोध कर रहा था परन्तु उसे धृतराष्ट्र की बात माननी ही पड़ी और विदुर को इन्द्रप्रस्थ जाना पड़ा.

धृतराष्ट्र ने विदुर से कह कर भेजा था की वह युधिष्ठिर को उनकी किसी भी योजना के बारे में कुछ ना बताये विदुर इन्द्रप्रस्थ जाकर युधिष्ठिर को आमंत्रित कर आया|

पांडवों के हस्तिनापुर आने के बाद विदुर ने एकांत में जाकर सारी योजना के बारे में पांडवों को बता दिया युधिष्ठिर ने भी चुनोती स्वीकार करली|

पांडव कौरवों से समस्त दावो में हार गये और आखरी में वे द्रोपदी को भी हार गये| विदुर ने कहा की अपने आप को दाव पर हारने के बाद युधिष्ठिर द्रोपदी को दाव पर लगाने का अधिकारी नही है परन्तु धृतराष्ट्र ने द्रोपदी को एक सेवक प्रतिकामी के हाथ दरबार में बुलवा लिया|

द्रोपदी ने वहा आने से पहले यही प्रश्न किया की धर्मपुत्र ने कोनसा दाव हारा है मेरा या उनका ?

दुर्योधन ने अब भाई से कहा की द्रोपदी को सभा में बुलवाओ| युधिष्ठिर ने एक सेवक से कहा की द्रोपदी से कहो की यदि वह रजस्वला है या फिर एक वस्त्र में है तो वह वेसी ही उठ कर चली आये सभा में|

पुज्यवर्ग के सामने उसका उस दशा में कल्पते हुए पहुचना दुर्योधन आदि के पापो को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा|

जब द्रोपदी सभा में आई तो दुशासन से उसे स्त्रियों की और नही जाने दिया और उसके बाल पकड़ कर खीच लिए और कहा की:-

“हमने तुझे जुए में जीता है अत हम तुझे अपनी दासियों में रखेंगे”

द्रोपदी ने समस्त कुरुवंशियो के शोर्य, धर्म और नीति को ललकारा और श्रीकृष्ण को मन ही मन स्मरण कर अपनी लाज बचाने के लिए प्राथना करती रही|

सब चुप थे परन्तु दुर्योधन का छोटा भाई विकर्ण बोला की हारा हुआ युधिष्ठिर द्रोपदी को दाव पर नही रख सकता था किन्तु किसी ने भी उसकी  बात नही सुनी|

कर्ण के उकसाने से दुशासन ने द्रोपदी को निर्वस्त्र करने की चेष्टा की उधर रोती हुई द्रोपदी ने जब पांडवों की और देखा तो भीम ने युधिष्ठिर से कहा की वह उसके हाथ जला देना चाहता है जिनसे उसने जुआ खेला था|

अर्जुन ने उसे शांत किया और भीम ने शपथ ली की वह दुशासन की छाती का खून पिएगा और दुर्योधन की जांघ को अपनी गदा से नष्ट कर  डालेगा|

द्रोपदी श्री कृष्ण का स्मरण कर रही थी| जब दुशासन द्रोपदी के वस्त्र को उतार रहा था तब श्रीकृष्ण की कृपा से उसके तन पर इतने वस्त्र आ गये की दुशासन खिचता रहा और द्रोपदी के शरीर पर कपड़े तने ही रहे|

दुर्योधन ने पांडवों को मोन देख कर द्रोपदी की दाव में हारे जाने की बात ठीक थी या नही इसका निर्णय भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव पर छोड़ दिया|

अर्जुन तथा भीम ने कहा की जो व्यक्ति दाव में हार चूका हो वह किसी ऐसी वस्तु को दाव में रख ही नही सकता | धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को फटकारा और द्रोपदी से तीन वर मांगने को कहा|

  1. द्रोपदी ने पहले वर में युधिष्ठिर की मुक्ति मांगी|
  2. दुसरे वर में भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव की मुक्ति शस्त्र रहित मांगी|
  3. तीसरा वर मांगने को वह तैयार नही हुई क्युकी उसके अनुसार क्षत्रिय स्त्री दो ही वर मांगने की अधिकारी होती है|

धृतराष्ट्र ने उन्हें अब इन्द्रप्रस्थ जाने को कहा लेकिन दुर्योधन के कहने पर धृतराष्ट्र ने फिर से उन्हें जुआ खेलने की अनुमति दी|

इस बार दाव एक ही था| अबकी बार पांडवों और कौरवों में जो भी हारने वाला था वह बारह वर्ष का वनवास भोगेगा और एक वर्ष का अज्ञातवास में भी रहना है यदि इस बिच उन्हें कोई पहचान ले तो फिर से उन्हें बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ेगा.

भीष्म के रोकने पर भी सब जुआ खेलने को तैयार हो गये| इस बार फिर से पांडव हार गये और छली शकुनि जीत गया| वन गमन से पूर्व पांडवों ने शपथ ली की वे अपने सारे दुश्मनों को खत्म कर देंगे|

श्रीधोय्म्य पुरोहित के नेतृत्व में पांडवों ने द्रौपदी को साथ लेकर वन की और प्रस्थान किया| पुरोहित जी साम मंत्रो का गान करते हुए आगे की और बढ़े| पांडव कहकर गये थे की युद्ध में कौरवों के मरने पे उनके पुरोहित भी इसी प्रकार साम गान करेंगे|

युधिष्ठिर ने अपना मुह ढक रखा था| भीम अपने बाहूबल को स्मरण कर रहा था, अर्जुन रेत को बीखेरता हुआ जा रहा था, सहदेव ने अपने मुह  पर मिट्टी मिली हुई थी, द्रौपदी के बाल खुले हुए थे और अपने खुले बालो से मुह ढक कर विलाप कर रही थी|

वह सोच रही थी की जिस अन्याय से उसकी यह दशा हुई है चोदह वर्ष बाद शत्रुओं की नारियो की भी यही दशा होगी|

वनवास के बारह वर्ष पुरे हो गये और अब युधिष्ठिर ने योजना बनाई की वह वेश बदल कर मत्स्य देश की और चलेंगे| मार्ग में एक भयानक वन में भीतर के एक श्मशान में उन्होंने अपने अस्त्रों शस्त्रों को छुपाकर रख दिया और उसके उपर मरे हुए लोगो की हड्डियों और अस्थियो को रख दिया जिससे की भय के कारण कोई भी वहा ना आये.

पांडवों ने अपने नकली नाम रखे जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल ये नाम सिर्फ मार्ग के लिए थे| मत्स्य देश जाकर वह अपने दुसरे नाम रखने वाले थे|

जब पांडव राजा विराट के दरबार में पहुचे तो युधिष्ठिर बोले की राजन में व्याघ्रपद गोत्र में पैदा हुआ हूँ मेरा नाम कंक और मै घुत विद्या में निपुण हूँ आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर आया हूँ|

राजा विराट बोले की आप दर्शनीय पुरुष नजर आते है मै आपसे प्रसन्न हूँ आप सम्मान पूर्वक यहा रह सकते है उसके बाद सभी पांडव राजा विराट के दरबार में आये और बोले की राजन हम सब पहले राजा युधिष्ठिर के सेवक थे पांडवों को वनवास हुआ है इसीलिए हम आपकी सेवा के लिए उपस्थित हुए है.

राजा विराट ने सबसे उनका परिचय पूछा तब सबसे पहले हाथ में कढाई और करछुल लिए हुए भीमसेन बोले की मेरा नाम बल्लभ है में रसोई बनाने के कार्य में निपुण हूँ|

सहदेव बोले की मेरा नाम तंतिपाल है मै गाय और बछड़ो की नस्ल पहचानने में निपुण हूँ|

नकुल बोले मेरा नाम ग्रंथिक है मै अश्व विद्या में निपुण हूँ|

महाराज विराट ने सभी को अपनी सेवा में रख लिया आखरी में अर्जुन आते है और कहते है की में नृत्य में निपुण हूँ और बताया की वो नपुंसक है|

व्रहनला ने उनके नपुंसक होने की जांच कराइ और फिर राजा विराट ने अपनी पुत्री की संगीत शिक्षा के लिए उन्हें रख लिया|

इधर द्रौपदी आई और महाराज विराट के पास जाकर बोली की महारानी मै पहले महारानी द्रौपदी की दासी थी मेरा नाम सैरन्ध्री है अब मै आपकी सेवा का कार्य करने की कामना लेकर आई हूँ| महारानी ने भी द्रौपदी को अपनी दासी के रूप में रख लिया और यहा से द्रौपदी और पांडवों का अज्ञातवास शुरू हो गया.

दिव्यास्त्रों की प्राप्ति – सम्पूर्ण महाभारत की कथा हिंदी में

एक बार अर्जुन उतराखंड के पर्वतों को पार करते हुए एक सुंदर वन में जा पहुचे वहा के शांत वातावरण में भगवान् शिव जी की तपस्या करने लगे| अर्जुन की तपस्या की परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव एक भील का वेश धारण कर उस वन में आये|

भील के रूप में शिव जी ने देखा की एक दैत्यशुक्र का रूप धारण कर अर्जुन की घात लगाये हुए है| भगवान शिव जी ने उस देत्य पर अपना बाण छोड़ दिया| शुक्र के बाण लगते ही उसके प्राण निकल गये|

शुक्र के मर जाने पर अर्जुन और भील रूपी शिव जी दोनों ही शुक्र को अपने अपने बाणों से मारा जाने का दावा करने लगे| दोनों के मध्य घोर विवाद हुआ और विवाद युद्ध का रूप धारण करने लगा|

अर्जुन भील पर लगातार बाणों की वर्षा करते रहे लेकिन भील मुस्कुराता रहा सारे बाण उसके शरीर से टकराकर गिरते रहे अंत में अर्जुन की तरकश के सभी बाण समाप्त हो गये|

अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे जिसमे वे भील के प्रहार से मूर्छित हो गये थोड़ी देर बाद जब अर्जुन को होश आया उन्होंने देखा भील अभी भी वही खड़ा मुस्कुरा रहा था|

अर्जुन ने भील को मारने के लिए भगवान शिव की मूर्ति पर पुष्पमाला डाली परन्तु वह पुष्पमाला मूर्ति पर ना डल कर भील के गले में जा गिरी इसी बात से अर्जुन समझ गया की वह भील भगवान शिव ही है|

अर्जुन भगवान शिव जी के पेरो में गिर गया और माफ़ी मांगने लगा| भगवान शिव भी अपने असली रूप में आ गये और शिव जी अर्जुन से बोले की मै तुम्हारी इस भक्ति से प्रसन्न हूँ और तुमको में पाशुपतास्त्र देता हूँ इसके बाद शिव जी वहा से अंतर्ध्यान हो गये और इसके बाद वरुण, यम, कुबेर, इंद्र, गन्धर्व आदि सब अपने अपने वाहनों पर सवार होकर वहा आ गये|

अर्जुन ने सभी देवताओं की विधि विधान से पूजा की और तब यमराज बोले की अर्जुन आप नर के अवतार है और भगवान श्री कृष्ण नारायण के अवतार है आप दोनों मिलकर पृथ्वी का भार हल्का करोगे और सभी देवता कई अस्त्र शस्त्र अर्जुन को देकर वहा से चले गये|

इसके बाद अर्जुन को इंद्र देव कहकर गये की जब तक वे अपने सारथि को अर्जुन को ना लेने भेजे तब तक अर्जुन वही रहकर उनका इंतज़ार करे और कुछ समय बाद इंद्र देव का सारथि अर्जुन को लेने आये उसके साथ अर्जुन अमरावती नगर (इंद्र की नगरी) चले गये.

अर्जुन ने वहा जाकर इंद्र को प्रणाम किया| इंद्र देव ने अर्जुन को अपना आशीर्वाद दिया और अपने पास वाला आसन बेठने को दिया|

इंद्र की नगरी में रहकर अर्जुन ने अलोकिक अस्त्र शस्त्र का ज्ञान प्राप्त किया अर्जुन ने इस विषय में महारत प्राप्त कर ली फिर एक दिन अर्जुन से इंद्र देव ने कहा की वत्स तुम चित्र सेन नामक गंधर्व से नृत्य की शिक्षा प्राप्त करलो|

जब अर्जुन न्रत्य शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तब वहा इंद्र की अप्सरा उर्वशी आई और बोली की ‘हे अर्जुन आपको देखकर मेरी प्रणय जाग्रत हो गयी है अत: आप मेरे साथ विहार करके मेरी प्रणय को शांत कीजिये’.

तब अर्जुन बोले की देवी आपने हमारे पूर्वजो से विवाह कर हमारे वंश का गोरव बढ़ाया था आप मेरे लिए मेरी माता तुली है अर्जुन के इसी वचनों को सुनकर उर्वशी को अच्छा नही लगा और वह अर्जुन को एक वर्ष तक नपुंसक होने का शाप देकर चली गयी|

इसके बाद अर्जुन ने यह सारी बात इंद्र को बताई इंद्र ने अर्जुन से कहा की यह शाप भी तुम्हारे काम आएगा जब तुम अज्ञातवास को जाओगे तब यह शाप तुम्हे उपयोगी होगा यह शाप भी भगवान की ही इच्छा थी.

जयद्रथ की दुर्गति – जयद्रथ वध स्टोरी इन हिंदी – महाभारत पांडवों का 1 वर्ष का अज्ञातवास

एक बार पांडव किसी आवश्यक कार्य से आश्रम में केवल द्रोपदी और उनके साथ पुरोहित धौम्य थे उसी समय सिन्धु देश का राजा जयद्रथ जो विवाह की इच्छा से शाल्व देश जा रहा था वह आश्रम के बहार से निकला|

अचानक आश्रम के द्वार पर खड़ी द्रोपदी को जयद्रथ ने देखा और उस पर मुग्ध हो बेठा| जयद्रथ ने अपनी सेना को वही रोका और अपने मित्र कार्तिकस्य से कहा की जाकर पता करो की वह स्त्री कोन है यदि इस स्त्री से मेरा विवाह हो जाये तो मुझे शाल्व देश जाने की कोई जरूरत ही नही पड़ेगी.

कोतिकास्य द्रोपदी के पास जाकर बोला देवी आप कोन है ?

द्रोपदी बोली में पांडवों की पत्नी द्रोपदी हूँ मेरे पती अभी बहार गये है और आने वाले है इतने आप बहार बेठ जाइए और मै आपके खाने का प्रबंध करती हूँ|

यह सब बात जाकर कोतिकास्य ने जयद्रथ को बताई तब जयद्रथ द्रोपदी के पास जाकर बोला की आप क्यों आपना समय यहा वन में काट रही है आप मेरे साथ चलिए मै आपको रानी बनाकर रखूँगा|

तब यह बात सुनकर द्रोपदी बहुत क्रोधित हो गयी और और वह जयद्रथ को धिक्कारने लगी लेकिन जयद्रथ पर कोई भी असर नही पड़ा और वह द्रोपदी को पकडकर अपने रथ में बिठाने चला गया|

वहा उपस्थित पुरोहित जी ने द्रोपदी की रक्षा करने की सोची और द्रोपदी की सहायता के लिए वो रथ के पीछे भागे| तब जयद्रथ के सेनिको ने पुरोहित जी को भी आघात कर दिया और उन्हें पटक कर जमीन में दे मारा|

थोड़ी देर बाद वहा पांडव आये और सारी बात दासी ने पांडवों को बताई| तब पांडव क्रोध में द्रोपदी की रक्षा करने के लिए उसी और भागे जिस और जयद्रथ का रथ गया था |

थोड़ी आगे जाकर उन्हें द्रोपदी सहित रथ मिल जाता है और सहदेव द्रोपदी को बचाने के लिए रथ पर चड़ जाता है और जयद्रथ को चोट मार देता था बाकी सभी पांडव जयद्रथ की सेना के पीछे पड जाते है और जयद्रथ की सेना डर कर भागने लगती है|

जयद्रथ भी डर जाता है और पैदल ही भागने लगता है | सहदेव को छोडकर बाकी सब पांडव जयद्रथ का पीछा करने लगते है और उसे पकडकर खूब मारते है तब अर्जुन बोलते है की भैया भीम इसके प्राण नही लेंगे हम|

इसके प्राण लेने के लिए इसे भैया युधिष्ठिर के लिए छोड़ देते है तब भीम अर्जुन के कहने पर जयद्रथ को छोड़ देता है इसके बाद वन में जाकर जयद्रथ भगवान शिव की तपस्या करता है और शिव जी उसकी तपस्या से प्रसन्न हो जाते है और जयद्रथ के सामने प्रकट हो जाते है तब शिव जी जयद्रथ को वर मांगने को बोलते है और जयद्रथ पांचो पांडवों पर विजय प्राप्त करने का वर मांगता है परन्तु शिव जी कहते है की:-

‘हे जयद्रथ पांडव अजय है कृष्ण नारायण के और अर्जुन नर के अवतार है मै अर्जुन को त्रिलोक विजय और पाशुपतास्त्र पहले ही दे चुका हूँ पर हाँ तुम अर्जुन के ना होने पर शेष पांडवों को एक बार को पीछे जरुर हटा सकते हो यह कहकर भगवान वहा से अंतर्ध्यान हो गये’

महाभारत का कीचक वध – Full Mahabharat Katha in Hindi – Complete Mahabharata Story In Hindi

पांडवों को राजा विराट के राज्य में रहते हुए दस माह निकल गये थे एक दिन राजा विराट का साला अपनी बहन सुदेशना से मिलने हेतु आया जब उसकी दृष्टि सैरंध्री (जो की द्रोपदी थी) पर पड़ी|

तो वह काम पीड़ित हो उठा और सैरंध्री से अकेले में मिलने की जिद में रहने लगा| द्रोपदी उसकी गंदी नजर को पहचान गयी और द्रोपदी ने महाराज विराट से कहा की कीचक मुझ पर गंदी नजर डाल रहा है|

मेरे पांच पती है वो कीचक को मार देंगे लेकिन किसी ने भी द्रोपदी की बात पर ज्यादा ध्यान नही दिया| लाचार होकर द्रोपदी ने भीमसेन को बता दिया की कीचक द्रोपदी पर नजर डाल रहा है तब भीमसेन ने द्रोपदी से कहा की आप कीचक को अर्धरात्रि मेंनृत्यशालामें मिलने का आदेश दे तो न्र्त्यशाला में आपकी जगह मै जाकर उसका वध कर दूंगा.

द्रोपदी ने कीचक को कह दिया की आप रात्री में न्र्त्यशाला में आ जाये| इस संकेत से कीचक बहुत खुश था और वह रात्री में द्रोपदी से मिलने की चाह में निकल पड़ा|

वहा भीमसेन द्रोपदी की साडी से लिपटा हुआ लेटा था| उन्हें सैरंध्री समझकर कीचक बोला की मेरा मन तुम पर न्योछावर है तभी एक दम से भीम सेन उछलकर उठते है और कहते है की पापी तू अपनी मृत्यु के पास खड़ा है|

भीमसेन ने कीचक को पटक पटक कर मारा और उसकी मृत्यु कर दी| अगली सुबह जब सभी ने कीचक को मरा हुआ देखा तो सभी लोग विलाप करने लगे तब द्रोपदी बोली की मेने कहा था की मेरे पती इसका वध कर देंगे|

सबने गुस्से में कीचक के शव के पास द्रोपदी को बाँध दिया और फिर पांडव उसे बचा भी नही सकते थे क्यूंकि वो अज्ञातवास में थे फिर चुपके से भीमसेन रास्ते में जाकर शरीर पर मिटटी लपेट ली और सबको घेर लिया और सबको मारना शुरू कर दीया और सबको बहुत मारा|

इसके बाद सब वापस महल लोट गये और सब द्रोपदी से डरने लगे और इसके बाद महल में केवल राजकुमार उत्तर ही थे और वे प्रजा से रक्षा के लिए गुहार लगा रहे थे तब द्रोपदी से रहा नही गया और द्रोपदी ने राजकुमार को खूब फटकारा और कहा की आप युद्ध के लिए जाइए तब राजकुमार बोले की मेरे पास कोई भी सारथि नही है अगर मेरे पास कोई भी सारथि होता तो मै कौरवों को अवश्य ही हरा देता|

तब द्रोपदी बोली की आप व्रहनला को सारथि बना कर साथ ले जाइए वह बहुत निपुण सारथि है| वह कुन्तीपुत्र अर्जुन का सारथि रह चुका है आप उसे साथ ले जाइए तब वे इन दोनों साथ में युद्ध के लिए निकले और साथ ही पांडवों का अज्ञातवास भी खतम हो गया था|

अर्जुन की नपुसंकता भी खतम हो गयी थी तब जाते जाते मार्ग में अर्जुन ने अपने अस्त्र शस्त्र ले लिए और जब वह युद्ध भूमि पहुचा तो वहा कौरवों की विशाल सेना भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, दुर्योधन, आदि राजकुमार उन सबको देखकर कहता है की वह इन सब से मुकाबला नही कर सकता तब अर्जुन राजकुमार को समझाते है की मेरे होते आप बिलकुल मत घबराइये आपका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता|

आज मै आपके सामने खुद को प्रकट कर रहा हूँ मै पांडू पुत्र अर्जुन हूँ और कंक युधिष्ठिर है, बल्लभ भीमसेन है तन्तिपाल नकुल है ग्रांथिक सहदेव है|

अब मै इन सब से युद्ध करूंगा तुम इस रथ की बागडोर को सम्भालो| तभी राजकुमार अर्जुन के पैर पकड़ लेते है और युद्ध भूमि में देवदत्त शंख की धवनी गूंज उठती है|

तब अर्जुन को देखकर दुर्योधन बोले की अभी तो इनका अज्ञातवास पूरा भी नही हुआ और इतनी जल्दी यह सामने आ गया तब भीष्म बोलते है की पांडव काल की गती को जानने वाले है मेने भी समय की गणना कर ली है पांडवों का समय पूरा हो गया है.

अब दुर्योधन बोला की अब जब अर्जुन आ ही गया है तो व्यूह रचना कर लेते है फिर भीष्म ने दुर्योधन से कहा की तुम एक तिहाई सेना लेकर हस्तिनापुर की और चलो यह देखकर की दुर्योधन रणभूमि से लोट रहा है अर्जुन ने अपने रथ को दुर्योधन के रथ के पीछे लगा लिया और उसे घेर लिया और असंख्य बाणों से उसे व्याकुल कर दिया.

अर्जुन के बाण से डरकर दुर्योधन के सैनिक भागने लगे, सारी गाय भी विराट नगर की और भागने लगी| दुर्योधन को अर्जुन के बाणों से घिरा देखकर कर्ण, द्रोण, भीष्म आदि सभी उसकी रक्षा के लिए दोड पड़े|

अर्जुन ने कर्ण को सामने देखकर उसपर इतने बाण बरसाए की कर्ण के रथ, घोड़े, सारथि, सब भाग गये अत: बाद में कौरवों को अर्जुन के सामने घुटने टेकने पड़े.

हमने यहा Mahabharat Katha के आधे भाग का ज्ञान लिया है| अगर आपको इसके बारें में अधिक पढ़ना है तो आप महाभारत कथा भाग 3 – कुरुक्षेत्र में हुआ भयंकर महाभारत युद्ध पर क्लिक करें और पूरी महाभरत का ज्ञान प्राप्त करें. “धन्यवाद”

भारत का इतिहास ⇓

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8 Comments

  1. बहुत सुंदर… आपने कम शब्दो मे अत्याधिक जानकारी दी है…महाभारत बहुत ही रोचक ग्रन्थ है और इससे हम की बाते सीख सकते है।

  2. Bahut badhiya likha hain Sir,Very nice, Aapne bade aasan shabdo me Mahabharat ki kahani hum tak
    pohchayee hain,Mahabharat jo ki hamara bhartiya ‘MAHAKAVYA’ hain jise jitni bar padha ya dekha jaye to bhi aisa lagata hain ki abhi bhi kuch baki hain Zindagi ke bare me sikhane ke liye,Kyuki Mahabhat ki ye katha hume jina sikhati hai.

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